Friday, 11 May 2012
Friday, 4 May 2012
पहला करगिल फिल्म उत्सव 19 मई से शुरु 15 मई तक फिल्में भेजें, ज्यादा जानकारी के लिए देखें
www.kargilfilmfestival.tk
अवाम का सिनेमा की तरफ से पहले करगिल फिल्म उत्सव का आयोजन 19-20 मई 2012 को हो रहा है| बात जब बेहतर सिनेमा की हो जिसे बाजार नहीं बल्कि सिर्फ सरोकारों को ध्यान में रखकर बनाया गया हो, तो ऐसे सिनेमा को उसके कम और बिखरे ही सही दीवानों तक पहुंचाने के लिए स्वाभाविक तौर पर थोड़ी ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है| इसलिए करगिल में फिल्म उत्सव की मशक्कत पिछले तीन साल से की जा रही थी| लद्दाख क्षेत्र के इतिहास में पहली बार किसी फिल्म मेले का आयोजन किया जा रहा है। अवाम का सिनेमा में कुछ हमख्याल दोस्त ही इसके सहयोगी और प्रायोजक हैं।
फिल्मग उत्सकव में कुछ चुनिंदा बेहतरीन फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा। निश्चित ही लद्दाख के फिल्म प्रेमियों के लिए यह उत्सव एक सौगात से कम नहीं है तथा साथ ही राज्य से बाहर स्थित अच्छे सिनेमा के शौकीनों के लिए फिल्मों के साथ-साथ करगिल के खूबसूरत और सौहार्दपूर्ण माहौल का मुज़ाहिरा करने का एक बढ़िया मौका भी।"अवाम का सिनेमा" ने 2006 में अयोध्या से छोटे स्तर पर ही सही, एक सांस्कृतिक लहर पैदा करने की कोशिश की थी। मकसद था कि फिल्मों के जरिए देश-समाज को समझने के साथ-साथ विभिन्न कला माध्यमों के जरिए आमजन के बीच बेहतर संवाद बने, उनके सुख-दुःख में शामिल होने के रास्ते खुलें और कुछ वैसी खोई विरासत से रूबरू होने का मौका मिले, जहां इंसानियत के लिए बेहिसाब जगह है।
"अवाम का सिनेमा" ने इस ओर कदम बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और फिल्में बनाने से लेकर लोगों के खुद सिनेमा बनाने की जमीन तैयार करने की दिशा में हर शुभचिंतक का सहयोग लेने की कोशिश की है जिससे आपसी सौहार्द की ओर बढ़ने का रास्ता आसान हो सके। इस अभियान के तहत अयोध्या, मऊ,जयपुर, औरैया, इटावा, दिल्ली और कश्मीर सहित कई जगहों पर फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। इसी कड़ी में पहला करगिल फिल्म उत्सव भी है।जिस दौर में हमारे लोकतंत्र को जीवन देने वाली संसद और विधानसभाओं से लेकर मीडिया तक के सारे पायदान अपने सरोकारों की सरमाएदारी पर उतर चुके हैं, उसमें जनता की सांस्कृतिक गोलबंदी ही एक ऐसा रास्ता है जो इन संस्थाओं को उनकी जिम्मेदारी का अहसास करा सकता है और उसे पूरा करने पर मजबूर कर सकता है।इसके लिए सबसे जरूरी पहल यह होगी कि जनसरोकारों के प्रति लोगों के बीच संवाद कायम किया जाए। "अवाम का सिनेमा" इसी दिशा में एक कोशिश है। यह आयोजन बगैर किसी प्रायोजक के अब तक चलता आया है और आगे भी ऐसे ही जारी रहेगा। एक बार फिर हम आपको इसमें आमंत्रित करते हैं। हमें उम्मीद है कि जनसरोकारों का दायरा और व्यापक बनाने की कोशिशों में हमें आपकी मदद जरूर मिलेगी।
www.kargilfilmfestival.tk
अवाम का सिनेमा की तरफ से पहले करगिल फिल्म उत्सव का आयोजन 19-20 मई 2012 को हो रहा है| बात जब बेहतर सिनेमा की हो जिसे बाजार नहीं बल्कि सिर्फ सरोकारों को ध्यान में रखकर बनाया गया हो, तो ऐसे सिनेमा को उसके कम और बिखरे ही सही दीवानों तक पहुंचाने के लिए स्वाभाविक तौर पर थोड़ी ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है| इसलिए करगिल में फिल्म उत्सव की मशक्कत पिछले तीन साल से की जा रही थी| लद्दाख क्षेत्र के इतिहास में पहली बार किसी फिल्म मेले का आयोजन किया जा रहा है। अवाम का सिनेमा में कुछ हमख्याल दोस्त ही इसके सहयोगी और प्रायोजक हैं।
फिल्मग उत्सकव में कुछ चुनिंदा बेहतरीन फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा। निश्चित ही लद्दाख के फिल्म प्रेमियों के लिए यह उत्सव एक सौगात से कम नहीं है तथा साथ ही राज्य से बाहर स्थित अच्छे सिनेमा के शौकीनों के लिए फिल्मों के साथ-साथ करगिल के खूबसूरत और सौहार्दपूर्ण माहौल का मुज़ाहिरा करने का एक बढ़िया मौका भी।"अवाम का सिनेमा" ने 2006 में अयोध्या से छोटे स्तर पर ही सही, एक सांस्कृतिक लहर पैदा करने की कोशिश की थी। मकसद था कि फिल्मों के जरिए देश-समाज को समझने के साथ-साथ विभिन्न कला माध्यमों के जरिए आमजन के बीच बेहतर संवाद बने, उनके सुख-दुःख में शामिल होने के रास्ते खुलें और कुछ वैसी खोई विरासत से रूबरू होने का मौका मिले, जहां इंसानियत के लिए बेहिसाब जगह है।
"अवाम का सिनेमा" ने इस ओर कदम बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और फिल्में बनाने से लेकर लोगों के खुद सिनेमा बनाने की जमीन तैयार करने की दिशा में हर शुभचिंतक का सहयोग लेने की कोशिश की है जिससे आपसी सौहार्द की ओर बढ़ने का रास्ता आसान हो सके। इस अभियान के तहत अयोध्या, मऊ,जयपुर, औरैया, इटावा, दिल्ली और कश्मीर सहित कई जगहों पर फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। इसी कड़ी में पहला करगिल फिल्म उत्सव भी है।जिस दौर में हमारे लोकतंत्र को जीवन देने वाली संसद और विधानसभाओं से लेकर मीडिया तक के सारे पायदान अपने सरोकारों की सरमाएदारी पर उतर चुके हैं, उसमें जनता की सांस्कृतिक गोलबंदी ही एक ऐसा रास्ता है जो इन संस्थाओं को उनकी जिम्मेदारी का अहसास करा सकता है और उसे पूरा करने पर मजबूर कर सकता है।इसके लिए सबसे जरूरी पहल यह होगी कि जनसरोकारों के प्रति लोगों के बीच संवाद कायम किया जाए। "अवाम का सिनेमा" इसी दिशा में एक कोशिश है। यह आयोजन बगैर किसी प्रायोजक के अब तक चलता आया है और आगे भी ऐसे ही जारी रहेगा। एक बार फिर हम आपको इसमें आमंत्रित करते हैं। हमें उम्मीद है कि जनसरोकारों का दायरा और व्यापक बनाने की कोशिशों में हमें आपकी मदद जरूर मिलेगी।
Awam Ka Cinema is organizing its first Kargil Film Festival from 19-20 May 2012. Meaningful cinema that focuses on social issues rather than monetary has very limited audience which is often scattered and distributed across the different parts of the world. It becomes difficult for the filmmakers to reach out to such audience with this cinema. It is with this thought as the driving force that Awam Ka Cinema has been making relentless efforts for the past three years to organize the film festival in Kargil. It will be the first cultural festival of its kind in the history of Laddakh region. Some remarkable and meaningful films will be showcased during the festival. This film festival will prove to be an unusual gift for the people of Laddakh. The festival will also be an opportunity for the people from other states to enjoy good cinema in the midst of peaceful environment and scenic beauty of Laddakh.
Awam ka Cinema is organized as well as sponsored by a group of like minded friends. It had first started as a humble initiative in Ayodhya in 2006 and since then it has been making constant efforts to bring a wave of social and cultural change in the society. As a part of this initiative, we have organized film festivals in Ayodhya, Mau, Jaipur, Aurayya, Itawah, Delhi and Kashmir. The main motive behind this initiative has been to create a dialogue between people from different sections of society and country through the medium of art and cinema. This will open up a platform for people to express, share and understand each others joys and sorrows, situation and condition in life, a platform that will have infinite space for humanity. In an age and time when the pillars of democracy such as the parliament, legislature and even the media are ambitious about money rather than for the genuine issues of the people, the only hope for the people to develop cultural unity is through such efforts. It is only through people’s mass movement that these institutions will realize and undertake their responsibility towards the citizens. The most important step to achieve this would be by creating a dialogue between the people.
Awam Ka Cinema has left no stones unturned to achieve this goal. We have also reached out to get the help and support from the well wishers and lovers of good cinema to create a platform for the making of good cinema. This initiative has been successfully organized without any sponsors so far and will continue to do so in the future. We invite you to participate and support us in our efforts to raise people’s issues and bring them to the forefront.
कारगिल में सांस्कृतिक अगड़ाई
‘अवाम का सिनेमा’का पहला कारगिल फिल्म उत्सव
19-20 मई 2012
कुछ कहावतें केवल कहने के लिए होती हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता। मसलन जब ये कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है तो स्वाभाविक सी बात है कि समाज का हर हिस्सा या तबका उस दर्पण में अपनी छवि को देखना चाहेगा। लेकिन हिंदी सिनेमा और खासकर हालीवुड की नकल वाला बालीवुड की फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। बालीवुड से बनने वाले फिल्में समाज के पूंजीवादी तबके के हितों का आइना हो सकती हैं, लेकिन उसे पूरे समाज का आइना नहीं कहा जा सकता। हालांकि फिल्मों को समाज का वास्तविक आइना बनाने में कुछ ऐसे बिरले फिल्मकार या फिल्म संगठन हैं जो समाज के हर छूटे-बिसराये गए विषयों को अपनी पठकथा का हिस्सा बनाकर उन्हें समाज से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
ऐसी ही एक कोशिश पिछले कई सालों से ‘अवाम का सिनेमा’ के बैनर तले हो रही है। इस कोशिश का अगला पड़ाव होगा कारगिल फिल्म उत्सव। यहां 19 मई से इस फिल्मोत्सव का आयोजन होगा। फिल्मी सितारों की चकाचैंध से दूर और बाकी भारत से अलग-थलग कर दिए गए लद्दाख क्षेत्र में होने वाला यह फिल्म फेस्टिवल वहां की जनता को बाकी भारतीय जनता के साथ जोड़ने की एक कोशिश की तरह है। कारगिल में इस तरह का यह पहला फिल्म फेस्टिवल होगा। दरअसल कारगिल का नाम आते ही सभी के मन में 1999 में कारगिल युद्ध की छवि उभरने लगती है। इस युद्ध ने एक तरह से कारगिल को एक खतरनाक जगह के रूप में पेश किया।
यहां कौन जीता-कौन हारा से ज्यादा बड़ा सवाल है कि युद्ध के बाद कारगिल का क्या हुआ। क्या सेना के दम पर किसी क्षेत्र को बनाए रखना ही महज उस क्षेत्र की उपयोगिता है या इससे इतर उस क्षेत्र को समाज की धारा से जोड़ने की जरूरत है। कारगिल सहित कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का एक राजनैतिक मामला है, जिसका पिछले कई दशकों से सैन्य समाधान तलाशने की कोशिश की जा रही है। दोनों तरफ से चलने वाले सैन्य अभियानों में अगर किसी ने कुछ गवायां है तो वो कश्मीर की जनता है। पिछले तीन दशकों में हजारों लोग अलगाववादियों और सेना की गोलियों के शिकार बने। हजारों को सेना ने गुपचुप तरीके से मार डाला। कश्मीर में समय-समय पर मिलने वाले अनजान कब्रें इस बात की गवाह हैं। बाकी भारत में राष्ट्रवादियों के लिए कश्मीर एक खुराक की तरह है। यहीं से तय होता है कि कौन कितना ज्यादा राष्ट्रवादी होगा, या कितना ज्यादा अलगाववादी। कश्मीर को राजनैतिक तरीके से हल करने की बात करने वाले हमेशा संदिग्ध निगाहों से देखे जाते हैं। उनकी राष्ट्रभक्ति हमेशा संदेह के दायरे में होती है। भारतीय सिनेमा ने कश्मीर से जुड़े इस राष्ट्रवाद को लोगों के दिलो-दिमाग में और ज्यादा गहराई से बैठाया है। दरअसल जब हम किसी भी बहाने कश्मीर पर बात करेंगे तो वहां की राजनीति को अलग-थलग नहीं रखा जा सकता। इसलिए कारगिल फिल्म फेस्टिवल पर बातचीत से पहले कश्मीर और कारगिल की पृष्टभूमि को समझने की जरूरत है।
भारतीय सिनेमा के लिए कश्मीर हमेशा से मसालेदार और बिकाऊ पटकथा की तरह रहा है। कश्मीर की पृष्टभूमि पर बनने वाले ज्यादातर भारतीय फिल्में अच्छी कमाई की हैं। इन फिल्मों में कश्मीर को कई पहलूओं से दिखाया गया है। लेकिन ये सारे पहलू भारतीय शासक वर्ग के कैमरे से सूट किए गए हैं। कुछ हिंदी फिल्में कश्मीर के लोगों के साथ सहानुभूति जताती दिखती हैं, लेकिन उन फिल्मों का भी अंत भारतीय शासक वर्ग द्वारा पेश किए जाने वाले समाधान या राष्ट्रवादी नारे के साथ ही खत्म होती हैं। कुछ फिल्मों में कश्मीर केवल अच्छे लोकेशन के रूप में दिखाता है, लेकिन इन लोकेशन में छिपे दर्द को पैसा कमाऊ निर्माताओं की आंखे नहीं पकड़ पाती। इसी तरह की छवि ने कश्मीर को बाकी भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग में एक जड़ छवि के रूप में पेश किया है। कश्मीर धरती का स्वर्ग है जैसे जुमलो ने यहां की हकीकत को दुनिया के सामने नहीं आने दिया। बाकी हिंदी फिल्मों के जरिये जो कश्मीर लोगों ने देखा वो भी पूरी तरह सही नहीं था। ऐसे में सही क्या है, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। हर साल भारत में एक हजार से भी ज्यादा फिल्में बनती हैं लेकिन इसमें कौन सा फिल्म निर्माता कश्मीर को ठीक-ठीक तरह से पेश कर सका है, यह ढूंढ पाना मुश्किल होगा। अभी कुछ साल पहले दस्तावेजी फिल्में बनाने वाले निर्माता संजय काक ने जश्ने आजादी में कश्मीर की हकीकत को उभारने की कोशिश की। लेकिन बाकी भारत में इस फिल्म को कैसी प्रतिक्रिया मिली इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों नागपुर में उनकी फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन ऐन मौके पर टाल दिया गया। कुछ लंपट राष्ट्रवादियों के कहने पर आयोजकों ने इसे विवादित फिल्म बताकर इसका शो स्थगित कर दिया। इसे क्या माना जाए - क्या ये कि अभी तक की हिंदी फिल्में ने कश्मीर की जो छवि पेश की है उसे लोग बदलते नहीं देखना चाहते? या ये कि फिल्मों में कश्मीर की छवि अब ज्यादा दिनों तक जड़ नहीं रहने वाली। कश्मीर से अलग लद्दाख अपनी अलग सांस्कृतिक पृष्टभूमि रखता है। दरअसल जम्मू-कश्मीर-लद्दाख अलग-अलग सांस्कृतिक-प्राकृतिक विविधताओं वाले क्षेत्र हैं। ये विविधताएं हिंदी फिल्मों से गायब रही हैं। पिछले साल आई चर्चित फिल्म थ्री इडियट्स में लद्दाख की एक झलक देखने को मिली। लेकिन यह फिल्म का मुख्य हिस्सा नहीं था, बल्कि उसमें हीरो को और हीरो बनाने का महज एक माध्यम था। हालांकि लोगों ने इसे पसंद किया। लद्दाख क्षेत्र में होने वाला कारगिल फिल्म फेस्टिवल वहां के लोगों के लिए एक अनूठा आयोजन होगा। इस मायने में भी अलग कि ये आयोजन किसी सरकार या सेना की तरफ से नहीं हो रहा बल्कि इसे वहां के लोग, बाकी भारत के लोगों के साथ मिलकर कर रहे हैं। साल 2006 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या से शुरू हुआ 'अवाम का सिनेमा' का यह कारवां अपनी एक अलग पहचान लिये हुए। यह कारवां बिना किसी पहचान के मोहताज हुए या नाम कमाने की चाहत के बिना छोटे-छोटे शहरों पर केंद्रित करता है। 'अवाम का सिनेमा' ने इस फिल्मोत्सव को उन शहरों के लोगों के लिए शुरू किया है जो बिल्कुल भूला दिए गए हैं। जैसे कि कभी बागियों के घोड़ों की टापों से गूंजते रहने वाला चंबल के बीहड़। इन बीहड़ों और बागियों की पृष्टभूमि पर बनी फिल्मों ने खूब कमाई की लेकिन वहां अब वहां के लोगों को भुला दिया गया। अवाम के सिनेमा ने चंबल के गांवों में ऐसे फिल्मोत्सव के जरिये वहां के लोगों को जोड़ने की कोशिश।
राजस्थान का थार मरुस्थल भी फिल्मों में बार-बार दिखा है लेकिन किसी फिल्मकार या फिल्मी संगठन ने वहां फिल्म फेस्टिवल करने की जरूरत महसूस नहीं की। अवाम के सिनेमा ने भी इसी एक जिम्मेदारी के तौर पर लिया और वहां फिल्मोत्सव का आयोजन किया। ऐसे ही उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली,कश्मीर के कई छोटे-छोटे शहरों से होता हुआ ये कारवां अब कारगिल पहुंच रहा है।
गोवा के समुद्री तट पर सरकारी खर्चों से होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल या मुंबइयां फेस्टिवलों से अलग अवाम का सिनेमा हाशिये पर डाल दी गई अवाम के बीच ऐसे फेस्टिवल आयोजित कर रहा है। ये कहने की जरूरत नहीं की इस तरह के फेस्टिवल को कोई सरकारी या गैर सरकारी फिल्म इंडस्ट्री या संगठन प्रायोजित नहीं कर रहा। ये लोग केवल समुद्र तटों या महानगरीय फेस्टिवलों को प्रायोजित करते हैं। ‘अवाम का सिनेमा’ फिल्मोत्सव अवाम के सहयोग से आयोजित होता आया है। पूंजीवादी गलीज सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ अवाम का सिनेमा एक सांस्कृतिक लहर की तरह है। आप भी इस प्रतिरोध का हिस्सा बनें।
‘अवाम का सिनेमा’का पहला कारगिल फिल्म उत्सव
19-20 मई 2012
कुछ कहावतें केवल कहने के लिए होती हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता। मसलन जब ये कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है तो स्वाभाविक सी बात है कि समाज का हर हिस्सा या तबका उस दर्पण में अपनी छवि को देखना चाहेगा। लेकिन हिंदी सिनेमा और खासकर हालीवुड की नकल वाला बालीवुड की फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। बालीवुड से बनने वाले फिल्में समाज के पूंजीवादी तबके के हितों का आइना हो सकती हैं, लेकिन उसे पूरे समाज का आइना नहीं कहा जा सकता। हालांकि फिल्मों को समाज का वास्तविक आइना बनाने में कुछ ऐसे बिरले फिल्मकार या फिल्म संगठन हैं जो समाज के हर छूटे-बिसराये गए विषयों को अपनी पठकथा का हिस्सा बनाकर उन्हें समाज से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
ऐसी ही एक कोशिश पिछले कई सालों से ‘अवाम का सिनेमा’ के बैनर तले हो रही है। इस कोशिश का अगला पड़ाव होगा कारगिल फिल्म उत्सव। यहां 19 मई से इस फिल्मोत्सव का आयोजन होगा। फिल्मी सितारों की चकाचैंध से दूर और बाकी भारत से अलग-थलग कर दिए गए लद्दाख क्षेत्र में होने वाला यह फिल्म फेस्टिवल वहां की जनता को बाकी भारतीय जनता के साथ जोड़ने की एक कोशिश की तरह है। कारगिल में इस तरह का यह पहला फिल्म फेस्टिवल होगा। दरअसल कारगिल का नाम आते ही सभी के मन में 1999 में कारगिल युद्ध की छवि उभरने लगती है। इस युद्ध ने एक तरह से कारगिल को एक खतरनाक जगह के रूप में पेश किया।
यहां कौन जीता-कौन हारा से ज्यादा बड़ा सवाल है कि युद्ध के बाद कारगिल का क्या हुआ। क्या सेना के दम पर किसी क्षेत्र को बनाए रखना ही महज उस क्षेत्र की उपयोगिता है या इससे इतर उस क्षेत्र को समाज की धारा से जोड़ने की जरूरत है। कारगिल सहित कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का एक राजनैतिक मामला है, जिसका पिछले कई दशकों से सैन्य समाधान तलाशने की कोशिश की जा रही है। दोनों तरफ से चलने वाले सैन्य अभियानों में अगर किसी ने कुछ गवायां है तो वो कश्मीर की जनता है। पिछले तीन दशकों में हजारों लोग अलगाववादियों और सेना की गोलियों के शिकार बने। हजारों को सेना ने गुपचुप तरीके से मार डाला। कश्मीर में समय-समय पर मिलने वाले अनजान कब्रें इस बात की गवाह हैं। बाकी भारत में राष्ट्रवादियों के लिए कश्मीर एक खुराक की तरह है। यहीं से तय होता है कि कौन कितना ज्यादा राष्ट्रवादी होगा, या कितना ज्यादा अलगाववादी। कश्मीर को राजनैतिक तरीके से हल करने की बात करने वाले हमेशा संदिग्ध निगाहों से देखे जाते हैं। उनकी राष्ट्रभक्ति हमेशा संदेह के दायरे में होती है। भारतीय सिनेमा ने कश्मीर से जुड़े इस राष्ट्रवाद को लोगों के दिलो-दिमाग में और ज्यादा गहराई से बैठाया है। दरअसल जब हम किसी भी बहाने कश्मीर पर बात करेंगे तो वहां की राजनीति को अलग-थलग नहीं रखा जा सकता। इसलिए कारगिल फिल्म फेस्टिवल पर बातचीत से पहले कश्मीर और कारगिल की पृष्टभूमि को समझने की जरूरत है।
भारतीय सिनेमा के लिए कश्मीर हमेशा से मसालेदार और बिकाऊ पटकथा की तरह रहा है। कश्मीर की पृष्टभूमि पर बनने वाले ज्यादातर भारतीय फिल्में अच्छी कमाई की हैं। इन फिल्मों में कश्मीर को कई पहलूओं से दिखाया गया है। लेकिन ये सारे पहलू भारतीय शासक वर्ग के कैमरे से सूट किए गए हैं। कुछ हिंदी फिल्में कश्मीर के लोगों के साथ सहानुभूति जताती दिखती हैं, लेकिन उन फिल्मों का भी अंत भारतीय शासक वर्ग द्वारा पेश किए जाने वाले समाधान या राष्ट्रवादी नारे के साथ ही खत्म होती हैं। कुछ फिल्मों में कश्मीर केवल अच्छे लोकेशन के रूप में दिखाता है, लेकिन इन लोकेशन में छिपे दर्द को पैसा कमाऊ निर्माताओं की आंखे नहीं पकड़ पाती। इसी तरह की छवि ने कश्मीर को बाकी भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग में एक जड़ छवि के रूप में पेश किया है। कश्मीर धरती का स्वर्ग है जैसे जुमलो ने यहां की हकीकत को दुनिया के सामने नहीं आने दिया। बाकी हिंदी फिल्मों के जरिये जो कश्मीर लोगों ने देखा वो भी पूरी तरह सही नहीं था। ऐसे में सही क्या है, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। हर साल भारत में एक हजार से भी ज्यादा फिल्में बनती हैं लेकिन इसमें कौन सा फिल्म निर्माता कश्मीर को ठीक-ठीक तरह से पेश कर सका है, यह ढूंढ पाना मुश्किल होगा। अभी कुछ साल पहले दस्तावेजी फिल्में बनाने वाले निर्माता संजय काक ने जश्ने आजादी में कश्मीर की हकीकत को उभारने की कोशिश की। लेकिन बाकी भारत में इस फिल्म को कैसी प्रतिक्रिया मिली इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों नागपुर में उनकी फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन ऐन मौके पर टाल दिया गया। कुछ लंपट राष्ट्रवादियों के कहने पर आयोजकों ने इसे विवादित फिल्म बताकर इसका शो स्थगित कर दिया। इसे क्या माना जाए - क्या ये कि अभी तक की हिंदी फिल्में ने कश्मीर की जो छवि पेश की है उसे लोग बदलते नहीं देखना चाहते? या ये कि फिल्मों में कश्मीर की छवि अब ज्यादा दिनों तक जड़ नहीं रहने वाली। कश्मीर से अलग लद्दाख अपनी अलग सांस्कृतिक पृष्टभूमि रखता है। दरअसल जम्मू-कश्मीर-लद्दाख अलग-अलग सांस्कृतिक-प्राकृतिक विविधताओं वाले क्षेत्र हैं। ये विविधताएं हिंदी फिल्मों से गायब रही हैं। पिछले साल आई चर्चित फिल्म थ्री इडियट्स में लद्दाख की एक झलक देखने को मिली। लेकिन यह फिल्म का मुख्य हिस्सा नहीं था, बल्कि उसमें हीरो को और हीरो बनाने का महज एक माध्यम था। हालांकि लोगों ने इसे पसंद किया। लद्दाख क्षेत्र में होने वाला कारगिल फिल्म फेस्टिवल वहां के लोगों के लिए एक अनूठा आयोजन होगा। इस मायने में भी अलग कि ये आयोजन किसी सरकार या सेना की तरफ से नहीं हो रहा बल्कि इसे वहां के लोग, बाकी भारत के लोगों के साथ मिलकर कर रहे हैं। साल 2006 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या से शुरू हुआ 'अवाम का सिनेमा' का यह कारवां अपनी एक अलग पहचान लिये हुए। यह कारवां बिना किसी पहचान के मोहताज हुए या नाम कमाने की चाहत के बिना छोटे-छोटे शहरों पर केंद्रित करता है। 'अवाम का सिनेमा' ने इस फिल्मोत्सव को उन शहरों के लोगों के लिए शुरू किया है जो बिल्कुल भूला दिए गए हैं। जैसे कि कभी बागियों के घोड़ों की टापों से गूंजते रहने वाला चंबल के बीहड़। इन बीहड़ों और बागियों की पृष्टभूमि पर बनी फिल्मों ने खूब कमाई की लेकिन वहां अब वहां के लोगों को भुला दिया गया। अवाम के सिनेमा ने चंबल के गांवों में ऐसे फिल्मोत्सव के जरिये वहां के लोगों को जोड़ने की कोशिश।
राजस्थान का थार मरुस्थल भी फिल्मों में बार-बार दिखा है लेकिन किसी फिल्मकार या फिल्मी संगठन ने वहां फिल्म फेस्टिवल करने की जरूरत महसूस नहीं की। अवाम के सिनेमा ने भी इसी एक जिम्मेदारी के तौर पर लिया और वहां फिल्मोत्सव का आयोजन किया। ऐसे ही उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली,कश्मीर के कई छोटे-छोटे शहरों से होता हुआ ये कारवां अब कारगिल पहुंच रहा है।
गोवा के समुद्री तट पर सरकारी खर्चों से होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल या मुंबइयां फेस्टिवलों से अलग अवाम का सिनेमा हाशिये पर डाल दी गई अवाम के बीच ऐसे फेस्टिवल आयोजित कर रहा है। ये कहने की जरूरत नहीं की इस तरह के फेस्टिवल को कोई सरकारी या गैर सरकारी फिल्म इंडस्ट्री या संगठन प्रायोजित नहीं कर रहा। ये लोग केवल समुद्र तटों या महानगरीय फेस्टिवलों को प्रायोजित करते हैं। ‘अवाम का सिनेमा’ फिल्मोत्सव अवाम के सहयोग से आयोजित होता आया है। पूंजीवादी गलीज सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ अवाम का सिनेमा एक सांस्कृतिक लहर की तरह है। आप भी इस प्रतिरोध का हिस्सा बनें।
Tuesday, 1 May 2012
5th Ayodhya Film Festival "Awam Ka Cinema" 18-20 Dec 2011
5th Ayodhya Film Festival:
Awam Ka Cinema or People's Cinema
Venue: Shahid Ashfaque - Bismil Sabhaghar Benigang ITI, Ayodhya Faizabad
Dates: 18-20 December 2011
Timings: 10am - 6pm
The Ayodhya Film Festival is organised through contributions from the public and is organised for public view. Its motto is 'Awam ka cinema' or 'People’s cinema'. It has travelled to Mau, Jaipur, Auriya, Etawah, Delhi and Kashmir, focussing on smaller towns in an attempt to engage rural India. It was initiated in Ayodhya by a young film maker, Shah Alam, who invited Sumesh Sharma of the Clark House Initiative to curate a section of short films within the fifth edition of the festival.
Awam Ka Cinema or People's Cinema
Venue: Shahid Ashfaque - Bismil Sabhaghar Benigang ITI, Ayodhya Faizabad
Dates: 18-20 December 2011
Timings: 10am - 6pm
The Ayodhya Film Festival is organised through contributions from the public and is organised for public view. Its motto is 'Awam ka cinema' or 'People’s cinema'. It has travelled to Mau, Jaipur, Auriya, Etawah, Delhi and Kashmir, focussing on smaller towns in an attempt to engage rural India. It was initiated in Ayodhya by a young film maker, Shah Alam, who invited Sumesh Sharma of the Clark House Initiative to curate a section of short films within the fifth edition of the festival.
- Aditi Chitre, Journey to Nagaland, 2010, 26mins
- Amar Kanwar, The Many Faces of Madness, 2000, 19mins
- Anand Patwardhan, Excerpt from War & Peace, 2002, 6.39mins
- CAMP, Boycott, 2001, 6.24mins
- Desire Machine Collective, Daily Check Up, 2005, 8.09 mins
- Nalini Malani, Unity In Diversity, 2003, 7.30mins
- Radhamohini Prasad, Machis ko Sinka, 2008, 10.34 mins
- Sharmila Samant, A Story, 2002, 6.30mins
- Shilpa Gupta, 100 Handdrawn Maps of India , 2002, 3.41mins
- Shilpa Gupta, Blame, 2004, 1.49mins
- Tushar Joag, Phantoms, 2002, 3.46mins
- Tushar Joag, Three Bullets for Gandhi, 2008, 5.28mins
- Tyeb Mehta, Koodal, 1970, 16mins
- Valay Shinde, Scrolls, 2002, 17.48mins
- Saurabh Kumar, Handover 2011, 73.00 mins.
- Umesh Agarwal, Foot For Thought 2010, 32.00 mins.
- Kavita Joshi, My Body My Weapon 2007, 11.00 mins.
- Ashivin Kumar, Little Terrorist 2004, 15.00 mins.
- M. Malik, Ek Jumbish Khamosh Si 2011, 18.00 mins.
- Ravindra Randhawa, NDPL 2007, 37.00 mins.
- Nausheen Khan & Others Iqra 2011, 20.00 mins.
- Dr. Rupesh Srivastav, Prashna 2011, 40.00 mins.
- Meraj Siddiqui, Asha Hai Bachpan Ho Azad 2011,03.21 mins.
- Sachitanand Mishra, Who is Tapasi ? 2011, 08.30 mins.
Ayodhya, derives its name from the Sanskrit word Ayudh, or 'the city that is not to be fought for'. A fabled city with cobbled streets that wind into lanes, each lane having numerous temples. Across India, each village, caste and subsect have representative temples in the city, this diversity is reflected in the architecture, ceremonies, language, and the devotees who use the temple also as an inn away from the village. 16,000 temples are dedicated to Ram, the seventh incarnation of Vishnu, and a character from the Ramayana, an ancient Indian epic in Sanskrit by the poet Valmiki. It has had many versions as it transited cultures, languages and in recent centuries religions: the Ramayana exists as residual heritage in the cultural expression of Buddhist and Muslim societies. In India the most popular version is the Ramcharitramanas by Tulsidas in the 16th century and the Ramayanam by Kamban in Tamil in the 11th century. The epic, spread from India to the realms of the the ancient Majapahit empire that encompassed South-East Asia. The ancient capital of Ayuthaya in Thailand, derives its name from Ayodhya, traditional dances from Burma upto Bali depict episodes from the Ramayana. Kathak, a traditional Indian dance form, has its origins in Ayodhaya and Varanasi, accompanying narration of the epic with katha or music. Across towns and villages in India during festivals, the Ramayana is staged as a play, watched by many.
Throughout Ayodhya temples and mosques share walls, some of them are tombs of ancient mystics from as far as Iran, now revered mostly by Hindus. The gates of the city are gaurded by an ancient monastic order who hold reverence to the monkey god and reside in a fort called Hanumangarhi. This fort was built and fortified with canons by the local king - the Nawab of Awadh, a Shia muslim with origins in Iran. The Nawabs of Awadh being vassals to the Mughal (Mongol) emperor in Delhi, sought to build a composite culture of trust between their subjects who belonged to either Islam or to the Hindu faith. An environment of mutual respect and dependence was brought about by a state that refrained from being biased. Earlier portraits of the Hindu abbots of the temples of Ayodhya showed them dressed as Persian hermits with caps that resemble a Muslim fez. Within ceremonies of the temples the use of incense, the dressing up of the idols in sherwanis or Persian coats, and temple architecture based on Persian influence remind us of this past.
Ironically, the city became the epicentre of a political battle staged initially in Ayodhya aimed at a larger scramble for power by right wing Hindu nationalists. Since Indian Independence in 1947, minority voices amongst Hindus have advocated a larger political role for Hinduism as a state religion, though these voices were never able to find a reliable electorate or faithful constituency. Having failed to rally masses in their favour, Hindu fundamentalists with money garnered from urban sympathisers formed the Vishwa Hindu Parishad or the Word Hindu Council in Bombay. Their movement culminated at the site of a disputed Mosque, the Babri Masjid, long claimed as the birthplace of Lord Rama, with pilgrims of both faiths, it was demolished in 1992 by rioters from outside the city, most coming from Bombay - an act caught on camera.
The last decades of the 20th century saw the liberalisation of the television industry in India, paving the path to larger economic and political change in the country. Millions of Indians grew up watching the Ramayana, India’s first sucessfull television series produced in 1987, each Sunday for a period of a year. As with the Ramleela - a play staged to commemorate the birth of Ram, throughout India, whenever the epic was televised or turned to cinema, it was watched by Indians across creed, including Muslims. The year before the demolition of the disputed mosque, India opened up to satellite television and multiple channels. The mosque was demolished and it was witnessed by millions of people on their television sets. An act that was the harbinger of many riots and a genocide in later years. Effectively using the media the nationalists came to power by the turn of the decade.
The moving image is passionate and reassuring in its methods of perfecting a dream-like sequence, ignoring that it is staged, an audience loses its criticality. At the last Ramnavami in Ayodhya at the Ramleela plays, strewn into the story were criticisms of politically-conspiring power-hungry sadhus or mystics. In this manner of critique through parody, the benefactors of the play represented a collective desire for change, achieved with poetic directness. The Ayodhya Film Society using the transformative power of the moving image aims to redeem the image of a city, and thus reflect on a longer history of shared cultural identities.
As curator, I dealt with my personal history of association with the city. I am the custodian of a family temple built for pilgrims from the region of Mithila in north-eastern India. Surrounding the family temple are the ruins of temples built by benefactors from diverse regions of India to serve as sarais, now forgotten by fearful pilgrims refusing to visit a city considered to be the geographical epicentre of communal animosity in India. Perceptions of the city overshadow realities such as its architectural beauty, communal harmony, economic depravity, cuisine, and a populace that has fond memories of the mosque. Films selected tear apart similar perceptions that are accepted as realities, informing us of another India.
- Sumesh Sharma
Acknowledgements: Amar Kanwar, Majlis, Nikhil Raunak, Shaina Anand, Sharmila Samant, Tushar Joag and Usha Gawde.
Ayodhya Film Festival is a non-sponsored not-for-profit event, organised through contributions from the public and is organised for public view. It began in 2006, in remembrance of the sacrifice of Shaheed Ashfaqullah Khan and Pt. Ram Prasad Bismil, freedom fighters who were hung in Faizabad on 19 December 1927, themselves a metaphor of Hindu and Muslim unity. The festival was initiated by Shah Alam, a film maker who came to Ayodhya as a young Muslim orphan, and found education by living within temples and through donations from the mahants (Hindu abbots). In 2010 he graduated with a masters in philosophy in comparative religion and civilzations from Jamia Milia Islamia University, New Delhi. Review by Press Trust of India: www.ptinews.com/Features/_226116
Core Team: Dr. Anil Singh, Advocate Ashok Sirivastav, Jalal Siddiqi, Sharda Dube, Mohd. Ismil, Sunil Amar, Dr. Rupesh Singh, Gufran Siddiqi, Abhishek Sharma, Shah Alam, Indrjeet Varma, Afaq, Anil Varma, Naushad Ahamad, Mohd. Irfan, Ashish Kumar, Shariq Naqvi,Vinit Maurya, Mohd. Shafiq and Gufran Khan.
For press and other inquiries please contact:
Shah Alam +91 9873672153 | Directorate of Film Festival, 320 Saryu Kunj Durahi Kuwa, Ayodhya-22413, UP, India.
Throughout Ayodhya temples and mosques share walls, some of them are tombs of ancient mystics from as far as Iran, now revered mostly by Hindus. The gates of the city are gaurded by an ancient monastic order who hold reverence to the monkey god and reside in a fort called Hanumangarhi. This fort was built and fortified with canons by the local king - the Nawab of Awadh, a Shia muslim with origins in Iran. The Nawabs of Awadh being vassals to the Mughal (Mongol) emperor in Delhi, sought to build a composite culture of trust between their subjects who belonged to either Islam or to the Hindu faith. An environment of mutual respect and dependence was brought about by a state that refrained from being biased. Earlier portraits of the Hindu abbots of the temples of Ayodhya showed them dressed as Persian hermits with caps that resemble a Muslim fez. Within ceremonies of the temples the use of incense, the dressing up of the idols in sherwanis or Persian coats, and temple architecture based on Persian influence remind us of this past.
Ironically, the city became the epicentre of a political battle staged initially in Ayodhya aimed at a larger scramble for power by right wing Hindu nationalists. Since Indian Independence in 1947, minority voices amongst Hindus have advocated a larger political role for Hinduism as a state religion, though these voices were never able to find a reliable electorate or faithful constituency. Having failed to rally masses in their favour, Hindu fundamentalists with money garnered from urban sympathisers formed the Vishwa Hindu Parishad or the Word Hindu Council in Bombay. Their movement culminated at the site of a disputed Mosque, the Babri Masjid, long claimed as the birthplace of Lord Rama, with pilgrims of both faiths, it was demolished in 1992 by rioters from outside the city, most coming from Bombay - an act caught on camera.
The last decades of the 20th century saw the liberalisation of the television industry in India, paving the path to larger economic and political change in the country. Millions of Indians grew up watching the Ramayana, India’s first sucessfull television series produced in 1987, each Sunday for a period of a year. As with the Ramleela - a play staged to commemorate the birth of Ram, throughout India, whenever the epic was televised or turned to cinema, it was watched by Indians across creed, including Muslims. The year before the demolition of the disputed mosque, India opened up to satellite television and multiple channels. The mosque was demolished and it was witnessed by millions of people on their television sets. An act that was the harbinger of many riots and a genocide in later years. Effectively using the media the nationalists came to power by the turn of the decade.
The moving image is passionate and reassuring in its methods of perfecting a dream-like sequence, ignoring that it is staged, an audience loses its criticality. At the last Ramnavami in Ayodhya at the Ramleela plays, strewn into the story were criticisms of politically-conspiring power-hungry sadhus or mystics. In this manner of critique through parody, the benefactors of the play represented a collective desire for change, achieved with poetic directness. The Ayodhya Film Society using the transformative power of the moving image aims to redeem the image of a city, and thus reflect on a longer history of shared cultural identities.
As curator, I dealt with my personal history of association with the city. I am the custodian of a family temple built for pilgrims from the region of Mithila in north-eastern India. Surrounding the family temple are the ruins of temples built by benefactors from diverse regions of India to serve as sarais, now forgotten by fearful pilgrims refusing to visit a city considered to be the geographical epicentre of communal animosity in India. Perceptions of the city overshadow realities such as its architectural beauty, communal harmony, economic depravity, cuisine, and a populace that has fond memories of the mosque. Films selected tear apart similar perceptions that are accepted as realities, informing us of another India.
- Sumesh Sharma
Acknowledgements: Amar Kanwar, Majlis, Nikhil Raunak, Shaina Anand, Sharmila Samant, Tushar Joag and Usha Gawde.
Ayodhya Film Festival is a non-sponsored not-for-profit event, organised through contributions from the public and is organised for public view. It began in 2006, in remembrance of the sacrifice of Shaheed Ashfaqullah Khan and Pt. Ram Prasad Bismil, freedom fighters who were hung in Faizabad on 19 December 1927, themselves a metaphor of Hindu and Muslim unity. The festival was initiated by Shah Alam, a film maker who came to Ayodhya as a young Muslim orphan, and found education by living within temples and through donations from the mahants (Hindu abbots). In 2010 he graduated with a masters in philosophy in comparative religion and civilzations from Jamia Milia Islamia University, New Delhi. Review by Press Trust of India: www.ptinews.com/Features/_226116
Core Team: Dr. Anil Singh, Advocate Ashok Sirivastav, Jalal Siddiqi, Sharda Dube, Mohd. Ismil, Sunil Amar, Dr. Rupesh Singh, Gufran Siddiqi, Abhishek Sharma, Shah Alam, Indrjeet Varma, Afaq, Anil Varma, Naushad Ahamad, Mohd. Irfan, Ashish Kumar, Shariq Naqvi,Vinit Maurya, Mohd. Shafiq and Gufran Khan.
For press and other inquiries please contact:
Shah Alam +91 9873672153 | Directorate of Film Festival, 320 Saryu Kunj Durahi Kuwa, Ayodhya-22413, UP, India.
Subscribe to:
Posts (Atom)