कारगिल में सांस्कृतिक अगड़ाई
‘अवाम का सिनेमा’का पहला कारगिल फिल्म उत्सव
19-20 मई 2012
कुछ कहावतें केवल कहने के लिए होती हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता। मसलन जब ये कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है तो स्वाभाविक सी बात है कि समाज का हर हिस्सा या तबका उस दर्पण में अपनी छवि को देखना चाहेगा। लेकिन हिंदी सिनेमा और खासकर हालीवुड की नकल वाला बालीवुड की फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। बालीवुड से बनने वाले फिल्में समाज के पूंजीवादी तबके के हितों का आइना हो सकती हैं, लेकिन उसे पूरे समाज का आइना नहीं कहा जा सकता। हालांकि फिल्मों को समाज का वास्तविक आइना बनाने में कुछ ऐसे बिरले फिल्मकार या फिल्म संगठन हैं जो समाज के हर छूटे-बिसराये गए विषयों को अपनी पठकथा का हिस्सा बनाकर उन्हें समाज से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
ऐसी ही एक कोशिश पिछले कई सालों से ‘अवाम का सिनेमा’ के बैनर तले हो रही है। इस कोशिश का अगला पड़ाव होगा कारगिल फिल्म उत्सव। यहां 19 मई से इस फिल्मोत्सव का आयोजन होगा। फिल्मी सितारों की चकाचैंध से दूर और बाकी भारत से अलग-थलग कर दिए गए लद्दाख क्षेत्र में होने वाला यह फिल्म फेस्टिवल वहां की जनता को बाकी भारतीय जनता के साथ जोड़ने की एक कोशिश की तरह है। कारगिल में इस तरह का यह पहला फिल्म फेस्टिवल होगा। दरअसल कारगिल का नाम आते ही सभी के मन में 1999 में कारगिल युद्ध की छवि उभरने लगती है। इस युद्ध ने एक तरह से कारगिल को एक खतरनाक जगह के रूप में पेश किया।
यहां कौन जीता-कौन हारा से ज्यादा बड़ा सवाल है कि युद्ध के बाद कारगिल का क्या हुआ। क्या सेना के दम पर किसी क्षेत्र को बनाए रखना ही महज उस क्षेत्र की उपयोगिता है या इससे इतर उस क्षेत्र को समाज की धारा से जोड़ने की जरूरत है। कारगिल सहित कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का एक राजनैतिक मामला है, जिसका पिछले कई दशकों से सैन्य समाधान तलाशने की कोशिश की जा रही है। दोनों तरफ से चलने वाले सैन्य अभियानों में अगर किसी ने कुछ गवायां है तो वो कश्मीर की जनता है। पिछले तीन दशकों में हजारों लोग अलगाववादियों और सेना की गोलियों के शिकार बने। हजारों को सेना ने गुपचुप तरीके से मार डाला। कश्मीर में समय-समय पर मिलने वाले अनजान कब्रें इस बात की गवाह हैं। बाकी भारत में राष्ट्रवादियों के लिए कश्मीर एक खुराक की तरह है। यहीं से तय होता है कि कौन कितना ज्यादा राष्ट्रवादी होगा, या कितना ज्यादा अलगाववादी। कश्मीर को राजनैतिक तरीके से हल करने की बात करने वाले हमेशा संदिग्ध निगाहों से देखे जाते हैं। उनकी राष्ट्रभक्ति हमेशा संदेह के दायरे में होती है। भारतीय सिनेमा ने कश्मीर से जुड़े इस राष्ट्रवाद को लोगों के दिलो-दिमाग में और ज्यादा गहराई से बैठाया है। दरअसल जब हम किसी भी बहाने कश्मीर पर बात करेंगे तो वहां की राजनीति को अलग-थलग नहीं रखा जा सकता। इसलिए कारगिल फिल्म फेस्टिवल पर बातचीत से पहले कश्मीर और कारगिल की पृष्टभूमि को समझने की जरूरत है।
भारतीय सिनेमा के लिए कश्मीर हमेशा से मसालेदार और बिकाऊ पटकथा की तरह रहा है। कश्मीर की पृष्टभूमि पर बनने वाले ज्यादातर भारतीय फिल्में अच्छी कमाई की हैं। इन फिल्मों में कश्मीर को कई पहलूओं से दिखाया गया है। लेकिन ये सारे पहलू भारतीय शासक वर्ग के कैमरे से सूट किए गए हैं। कुछ हिंदी फिल्में कश्मीर के लोगों के साथ सहानुभूति जताती दिखती हैं, लेकिन उन फिल्मों का भी अंत भारतीय शासक वर्ग द्वारा पेश किए जाने वाले समाधान या राष्ट्रवादी नारे के साथ ही खत्म होती हैं। कुछ फिल्मों में कश्मीर केवल अच्छे लोकेशन के रूप में दिखाता है, लेकिन इन लोकेशन में छिपे दर्द को पैसा कमाऊ निर्माताओं की आंखे नहीं पकड़ पाती। इसी तरह की छवि ने कश्मीर को बाकी भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग में एक जड़ छवि के रूप में पेश किया है। कश्मीर धरती का स्वर्ग है जैसे जुमलो ने यहां की हकीकत को दुनिया के सामने नहीं आने दिया। बाकी हिंदी फिल्मों के जरिये जो कश्मीर लोगों ने देखा वो भी पूरी तरह सही नहीं था। ऐसे में सही क्या है, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। हर साल भारत में एक हजार से भी ज्यादा फिल्में बनती हैं लेकिन इसमें कौन सा फिल्म निर्माता कश्मीर को ठीक-ठीक तरह से पेश कर सका है, यह ढूंढ पाना मुश्किल होगा। अभी कुछ साल पहले दस्तावेजी फिल्में बनाने वाले निर्माता संजय काक ने जश्ने आजादी में कश्मीर की हकीकत को उभारने की कोशिश की। लेकिन बाकी भारत में इस फिल्म को कैसी प्रतिक्रिया मिली इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों नागपुर में उनकी फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन ऐन मौके पर टाल दिया गया। कुछ लंपट राष्ट्रवादियों के कहने पर आयोजकों ने इसे विवादित फिल्म बताकर इसका शो स्थगित कर दिया। इसे क्या माना जाए - क्या ये कि अभी तक की हिंदी फिल्में ने कश्मीर की जो छवि पेश की है उसे लोग बदलते नहीं देखना चाहते? या ये कि फिल्मों में कश्मीर की छवि अब ज्यादा दिनों तक जड़ नहीं रहने वाली। कश्मीर से अलग लद्दाख अपनी अलग सांस्कृतिक पृष्टभूमि रखता है। दरअसल जम्मू-कश्मीर-लद्दाख अलग-अलग सांस्कृतिक-प्राकृतिक विविधताओं वाले क्षेत्र हैं। ये विविधताएं हिंदी फिल्मों से गायब रही हैं। पिछले साल आई चर्चित फिल्म थ्री इडियट्स में लद्दाख की एक झलक देखने को मिली। लेकिन यह फिल्म का मुख्य हिस्सा नहीं था, बल्कि उसमें हीरो को और हीरो बनाने का महज एक माध्यम था। हालांकि लोगों ने इसे पसंद किया। लद्दाख क्षेत्र में होने वाला कारगिल फिल्म फेस्टिवल वहां के लोगों के लिए एक अनूठा आयोजन होगा। इस मायने में भी अलग कि ये आयोजन किसी सरकार या सेना की तरफ से नहीं हो रहा बल्कि इसे वहां के लोग, बाकी भारत के लोगों के साथ मिलकर कर रहे हैं। साल 2006 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या से शुरू हुआ 'अवाम का सिनेमा' का यह कारवां अपनी एक अलग पहचान लिये हुए। यह कारवां बिना किसी पहचान के मोहताज हुए या नाम कमाने की चाहत के बिना छोटे-छोटे शहरों पर केंद्रित करता है। 'अवाम का सिनेमा' ने इस फिल्मोत्सव को उन शहरों के लोगों के लिए शुरू किया है जो बिल्कुल भूला दिए गए हैं। जैसे कि कभी बागियों के घोड़ों की टापों से गूंजते रहने वाला चंबल के बीहड़। इन बीहड़ों और बागियों की पृष्टभूमि पर बनी फिल्मों ने खूब कमाई की लेकिन वहां अब वहां के लोगों को भुला दिया गया। अवाम के सिनेमा ने चंबल के गांवों में ऐसे फिल्मोत्सव के जरिये वहां के लोगों को जोड़ने की कोशिश।
राजस्थान का थार मरुस्थल भी फिल्मों में बार-बार दिखा है लेकिन किसी फिल्मकार या फिल्मी संगठन ने वहां फिल्म फेस्टिवल करने की जरूरत महसूस नहीं की। अवाम के सिनेमा ने भी इसी एक जिम्मेदारी के तौर पर लिया और वहां फिल्मोत्सव का आयोजन किया। ऐसे ही उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली,कश्मीर के कई छोटे-छोटे शहरों से होता हुआ ये कारवां अब कारगिल पहुंच रहा है।
गोवा के समुद्री तट पर सरकारी खर्चों से होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल या मुंबइयां फेस्टिवलों से अलग अवाम का सिनेमा हाशिये पर डाल दी गई अवाम के बीच ऐसे फेस्टिवल आयोजित कर रहा है। ये कहने की जरूरत नहीं की इस तरह के फेस्टिवल को कोई सरकारी या गैर सरकारी फिल्म इंडस्ट्री या संगठन प्रायोजित नहीं कर रहा। ये लोग केवल समुद्र तटों या महानगरीय फेस्टिवलों को प्रायोजित करते हैं। ‘अवाम का सिनेमा’ फिल्मोत्सव अवाम के सहयोग से आयोजित होता आया है। पूंजीवादी गलीज सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ अवाम का सिनेमा एक सांस्कृतिक लहर की तरह है। आप भी इस प्रतिरोध का हिस्सा बनें।
‘अवाम का सिनेमा’का पहला कारगिल फिल्म उत्सव
19-20 मई 2012
कुछ कहावतें केवल कहने के लिए होती हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता। मसलन जब ये कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है तो स्वाभाविक सी बात है कि समाज का हर हिस्सा या तबका उस दर्पण में अपनी छवि को देखना चाहेगा। लेकिन हिंदी सिनेमा और खासकर हालीवुड की नकल वाला बालीवुड की फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। बालीवुड से बनने वाले फिल्में समाज के पूंजीवादी तबके के हितों का आइना हो सकती हैं, लेकिन उसे पूरे समाज का आइना नहीं कहा जा सकता। हालांकि फिल्मों को समाज का वास्तविक आइना बनाने में कुछ ऐसे बिरले फिल्मकार या फिल्म संगठन हैं जो समाज के हर छूटे-बिसराये गए विषयों को अपनी पठकथा का हिस्सा बनाकर उन्हें समाज से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
ऐसी ही एक कोशिश पिछले कई सालों से ‘अवाम का सिनेमा’ के बैनर तले हो रही है। इस कोशिश का अगला पड़ाव होगा कारगिल फिल्म उत्सव। यहां 19 मई से इस फिल्मोत्सव का आयोजन होगा। फिल्मी सितारों की चकाचैंध से दूर और बाकी भारत से अलग-थलग कर दिए गए लद्दाख क्षेत्र में होने वाला यह फिल्म फेस्टिवल वहां की जनता को बाकी भारतीय जनता के साथ जोड़ने की एक कोशिश की तरह है। कारगिल में इस तरह का यह पहला फिल्म फेस्टिवल होगा। दरअसल कारगिल का नाम आते ही सभी के मन में 1999 में कारगिल युद्ध की छवि उभरने लगती है। इस युद्ध ने एक तरह से कारगिल को एक खतरनाक जगह के रूप में पेश किया।
यहां कौन जीता-कौन हारा से ज्यादा बड़ा सवाल है कि युद्ध के बाद कारगिल का क्या हुआ। क्या सेना के दम पर किसी क्षेत्र को बनाए रखना ही महज उस क्षेत्र की उपयोगिता है या इससे इतर उस क्षेत्र को समाज की धारा से जोड़ने की जरूरत है। कारगिल सहित कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का एक राजनैतिक मामला है, जिसका पिछले कई दशकों से सैन्य समाधान तलाशने की कोशिश की जा रही है। दोनों तरफ से चलने वाले सैन्य अभियानों में अगर किसी ने कुछ गवायां है तो वो कश्मीर की जनता है। पिछले तीन दशकों में हजारों लोग अलगाववादियों और सेना की गोलियों के शिकार बने। हजारों को सेना ने गुपचुप तरीके से मार डाला। कश्मीर में समय-समय पर मिलने वाले अनजान कब्रें इस बात की गवाह हैं। बाकी भारत में राष्ट्रवादियों के लिए कश्मीर एक खुराक की तरह है। यहीं से तय होता है कि कौन कितना ज्यादा राष्ट्रवादी होगा, या कितना ज्यादा अलगाववादी। कश्मीर को राजनैतिक तरीके से हल करने की बात करने वाले हमेशा संदिग्ध निगाहों से देखे जाते हैं। उनकी राष्ट्रभक्ति हमेशा संदेह के दायरे में होती है। भारतीय सिनेमा ने कश्मीर से जुड़े इस राष्ट्रवाद को लोगों के दिलो-दिमाग में और ज्यादा गहराई से बैठाया है। दरअसल जब हम किसी भी बहाने कश्मीर पर बात करेंगे तो वहां की राजनीति को अलग-थलग नहीं रखा जा सकता। इसलिए कारगिल फिल्म फेस्टिवल पर बातचीत से पहले कश्मीर और कारगिल की पृष्टभूमि को समझने की जरूरत है।
भारतीय सिनेमा के लिए कश्मीर हमेशा से मसालेदार और बिकाऊ पटकथा की तरह रहा है। कश्मीर की पृष्टभूमि पर बनने वाले ज्यादातर भारतीय फिल्में अच्छी कमाई की हैं। इन फिल्मों में कश्मीर को कई पहलूओं से दिखाया गया है। लेकिन ये सारे पहलू भारतीय शासक वर्ग के कैमरे से सूट किए गए हैं। कुछ हिंदी फिल्में कश्मीर के लोगों के साथ सहानुभूति जताती दिखती हैं, लेकिन उन फिल्मों का भी अंत भारतीय शासक वर्ग द्वारा पेश किए जाने वाले समाधान या राष्ट्रवादी नारे के साथ ही खत्म होती हैं। कुछ फिल्मों में कश्मीर केवल अच्छे लोकेशन के रूप में दिखाता है, लेकिन इन लोकेशन में छिपे दर्द को पैसा कमाऊ निर्माताओं की आंखे नहीं पकड़ पाती। इसी तरह की छवि ने कश्मीर को बाकी भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग में एक जड़ छवि के रूप में पेश किया है। कश्मीर धरती का स्वर्ग है जैसे जुमलो ने यहां की हकीकत को दुनिया के सामने नहीं आने दिया। बाकी हिंदी फिल्मों के जरिये जो कश्मीर लोगों ने देखा वो भी पूरी तरह सही नहीं था। ऐसे में सही क्या है, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। हर साल भारत में एक हजार से भी ज्यादा फिल्में बनती हैं लेकिन इसमें कौन सा फिल्म निर्माता कश्मीर को ठीक-ठीक तरह से पेश कर सका है, यह ढूंढ पाना मुश्किल होगा। अभी कुछ साल पहले दस्तावेजी फिल्में बनाने वाले निर्माता संजय काक ने जश्ने आजादी में कश्मीर की हकीकत को उभारने की कोशिश की। लेकिन बाकी भारत में इस फिल्म को कैसी प्रतिक्रिया मिली इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों नागपुर में उनकी फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन ऐन मौके पर टाल दिया गया। कुछ लंपट राष्ट्रवादियों के कहने पर आयोजकों ने इसे विवादित फिल्म बताकर इसका शो स्थगित कर दिया। इसे क्या माना जाए - क्या ये कि अभी तक की हिंदी फिल्में ने कश्मीर की जो छवि पेश की है उसे लोग बदलते नहीं देखना चाहते? या ये कि फिल्मों में कश्मीर की छवि अब ज्यादा दिनों तक जड़ नहीं रहने वाली। कश्मीर से अलग लद्दाख अपनी अलग सांस्कृतिक पृष्टभूमि रखता है। दरअसल जम्मू-कश्मीर-लद्दाख अलग-अलग सांस्कृतिक-प्राकृतिक विविधताओं वाले क्षेत्र हैं। ये विविधताएं हिंदी फिल्मों से गायब रही हैं। पिछले साल आई चर्चित फिल्म थ्री इडियट्स में लद्दाख की एक झलक देखने को मिली। लेकिन यह फिल्म का मुख्य हिस्सा नहीं था, बल्कि उसमें हीरो को और हीरो बनाने का महज एक माध्यम था। हालांकि लोगों ने इसे पसंद किया। लद्दाख क्षेत्र में होने वाला कारगिल फिल्म फेस्टिवल वहां के लोगों के लिए एक अनूठा आयोजन होगा। इस मायने में भी अलग कि ये आयोजन किसी सरकार या सेना की तरफ से नहीं हो रहा बल्कि इसे वहां के लोग, बाकी भारत के लोगों के साथ मिलकर कर रहे हैं। साल 2006 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या से शुरू हुआ 'अवाम का सिनेमा' का यह कारवां अपनी एक अलग पहचान लिये हुए। यह कारवां बिना किसी पहचान के मोहताज हुए या नाम कमाने की चाहत के बिना छोटे-छोटे शहरों पर केंद्रित करता है। 'अवाम का सिनेमा' ने इस फिल्मोत्सव को उन शहरों के लोगों के लिए शुरू किया है जो बिल्कुल भूला दिए गए हैं। जैसे कि कभी बागियों के घोड़ों की टापों से गूंजते रहने वाला चंबल के बीहड़। इन बीहड़ों और बागियों की पृष्टभूमि पर बनी फिल्मों ने खूब कमाई की लेकिन वहां अब वहां के लोगों को भुला दिया गया। अवाम के सिनेमा ने चंबल के गांवों में ऐसे फिल्मोत्सव के जरिये वहां के लोगों को जोड़ने की कोशिश।
राजस्थान का थार मरुस्थल भी फिल्मों में बार-बार दिखा है लेकिन किसी फिल्मकार या फिल्मी संगठन ने वहां फिल्म फेस्टिवल करने की जरूरत महसूस नहीं की। अवाम के सिनेमा ने भी इसी एक जिम्मेदारी के तौर पर लिया और वहां फिल्मोत्सव का आयोजन किया। ऐसे ही उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली,कश्मीर के कई छोटे-छोटे शहरों से होता हुआ ये कारवां अब कारगिल पहुंच रहा है।
गोवा के समुद्री तट पर सरकारी खर्चों से होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल या मुंबइयां फेस्टिवलों से अलग अवाम का सिनेमा हाशिये पर डाल दी गई अवाम के बीच ऐसे फेस्टिवल आयोजित कर रहा है। ये कहने की जरूरत नहीं की इस तरह के फेस्टिवल को कोई सरकारी या गैर सरकारी फिल्म इंडस्ट्री या संगठन प्रायोजित नहीं कर रहा। ये लोग केवल समुद्र तटों या महानगरीय फेस्टिवलों को प्रायोजित करते हैं। ‘अवाम का सिनेमा’ फिल्मोत्सव अवाम के सहयोग से आयोजित होता आया है। पूंजीवादी गलीज सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ अवाम का सिनेमा एक सांस्कृतिक लहर की तरह है। आप भी इस प्रतिरोध का हिस्सा बनें।
No comments:
Post a Comment